Last Updated on September 23, 2023 by Mani_Bnl
राज्यपाल क्या होता है? राज्यपाल की भूमिका क्या है? ये सवाल अगर आपके मन में भी है तो हमारा ये आर्टिकल आपको जरूर पढ़ना चाहिए। इस आर्टिकल में हमने राज्यपाल क्या होता है?राज्यपाल की शक्तियां और स्थिति, राज्यपाल की नियुक्ती, राज्यपाल की नियुक्ती के संबंध में प्रथाएं, राज्यपाल की तनख़ा, भत्ते और अनेक सहुलात, राज्यपाल की शक्तियां और कार्य, राज्यपाल की भूमिका क्या है? को विस्तार से बताया है जिससे आपको राज्यपाल के बारे सभी जानकारी विस्तृत रूप में और इक ही जगह मिल जाये। तो आइये जानते है बिना किसी देरी के राज्यपाल क्या होता है?
राज्यपाल क्या होता है?
हमारे देश भारत के द्वारा संघी शासन – प्रणाली अपनाने के कारण दोहरी शासन प्रणाली मिलती है। जिस प्रकार केंद्र में सरकार है। उसी प्रकार सारे राज्यों में – अलग सरकार है। केन्द्र सरकार और राज सरकार अपनी शक्तिया संविधान से हासिल करती है और केन्द्र सरकार साधारण रूप से राज सरकारों के मामलों में दख़ल – अंदाजी नहीं कर सकती। केन्द्र की तरह राज की कार्यपालिका की शक्तिया राज्यपाल के पास होती है।
जिनका प्रयोग वह मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार करता है। कानून बनाने की शक्तियां विधान सभा के पास होती है और राज्य की नियापालिका अपनी उच्च अदालत में कंट्रोल रूप में काम करती हैं। राज्यपाल क्या होता है? राज्यपाल की भूमिका क्या है? को विस्तार से जानने के लिए हमें सबसे पहले राज्यपाल की शक्तियां और स्थिति को जानना चाहिए।
राज्यपाल की शक्तियां और स्थिति (Powers and position of the Governor)

भारत में संघी शासन प्रणाली होने के कारण राज्यों में अलग – अलग सरकार हैं। राज्य की सरकार का गठन बहुत कुछ संघी सरकार के साथ मिलता – जुलता है। राज्य और शासन, राज्यपाल के नाम पर चलता है, जो राज्य का मुखी हैं, पर राज्य में भी केंद्र और शंसदी शासन – प्रणाली होने के कारण राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करता है। राज्यपाल की स्थिति बहुत कुछ उसी तरह की है जिस तरह केंद्र में राष्ट्रपति की। भारती संविधान की धारा 153 और 160 तक में राज्यपाल की नियुक्ति शक्तियाँ और कामों का वर्णण किया गया हैं।
राज्यपाल की नियुक्ती (Appointment)

हरेक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है और वह राष्ट्रपति की मर्ज़ी तक ही अपने पद पर रह सकते है। असली रूप में राष्ट्रपति प्रधान मंत्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है। मार्च 1977 से पहले जिन भी राज्यपालों की नियुक्तियां राष्ट्रपति के द्वारा किया गया, उन में कांग्रेस की गिनती ज्यादा रही है, पर जनता सरकार के दौरान जनता पार्टी के समर्थकों को राज्यपाल नियुक्त किया गया।
राज्यपाल के पद ने दिलासा पुरस्कार का रूप धारण कर लिया है जिस को हारे हुए कांग्रेसी लीडरों में बाटा जा रहा है। नरहरीबिष्णु गाडगिल, गोपाल सवरूप पाठक, बी.बी.गिरी, मोती लाल बोहरा, बलीराम भगत आदि इसी वर्ग में आते है।लोक सभा के चुनाव हारने के बाद चौधरी सूरजभान को मई 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त किया गया।
कई बार रिटायर्ड और सरगर्मी राजनीति में हिस्सा लेने वाले मंत्रियों को भी राज्यपाल के आह्हुदे पर नियुक्त किया जाता है। अजीत प्रसाद जैन, सभ्या नारायण सिहना, उम्मा संकर दिक्षत्त, सुधारक राऊ नायक आदि की नियुक्ति इस का सबूत है। अनेक मुख मंत्रियों को भी राज्यपाल बनाया गया; जैसे सुरजीत सिंह बरनाला, सुधाकर राऊ नायक, मोती लाल बोहरा आदि। मोहन लाल सुखाड़िया ने इस लिए राज्यपाल बनाया था , क्योंकि उन सब को सरगर्मी राजनीति से हटाना था। उन वाक्तियो के लिए भी राज्यपाल के ओहदे पर नियुक्त किया गया है, जिन्होंने ने बहुत प्रसिद्ध हासिल की होती है; जैसे कि बी.के नेहरू, सरोजनी नायडू,विजय लक्ष्मी पंडित आदि। सिविल सेवाएं से रिटायर्ड व्यक्तियो को भी राज्यपाल के ओहदे पर नियुक्त किया जाता रहा है।
राज्यपाल चुना हुआ क्यों नहीं हो सकता –
संविधान सभा में इस विषय पर बेहद बाद – विवाद चलता रहा है कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा किया जाए या चुनाव के द्वारा। आखिर में यह फैसला लिया गया की राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाए ना की चुनाव द्वारा। इस के पक्ष में नीचे लिखा गया हैं।
- जनता द्वारा चुना हुआ राज्यपाल और सांसद में शासन – प्रणाली आपस में मेल नहीं खाता है। जो राज्यपाल सीधा जनता द्वारा चुना जायेगा तो वह जनता का प्रतिनिधित्व होने के नाते अपनी शक्तियों का प्रयोग खुद करना चाहेगा । वह किसी भी शर्त ऊपर भी सभिधानिक मुखी बनना पसंद नहीं करेगा। एक हुए राज्यपाल और विधान सभा आगे जवाबदेह मंत्री मंडल आपस में संघर्ष की संभावना बढ़ जाएगी क्यों की मुख मंत्री और दूसरे मंत्री भी जनता के द्वारा चुने हुए होंगे।
- अगर राज्यपाल राज्य विधान सभा के मेंबरो के द्वारा चुना हो तो वह राजनीतिक गठबंधन से ऊपर नहीं उठ सकते। उस की चुनाव में जो दल उसकी मदद करेंगे, वह उनकी ऋणी हुआ करता है सदा उनकी हाथों की कठपुतली बना रहेगा। क्योंकी राज्यपाल की चुनाव स्थाई नहीं होते हुए भी सिर्फ कुछ सालों के लिए ही होगी। इस लिए वह वापस चुने जाने की आस में चुनाव मंडल की बहू – गिनती दल को खुश करने का प्रयास करते रहेंगे।
- जनता द्वारा चुना गया राज्यपाल अपने राज्य की जनता की प्रतिनिधत्व तो करेगा, पर सरकार की नहीं। इस हालत में चुना हुआ राज्यपाल संघ और राज्य सरकार आपस में किसी भी बात से मतभेद या टकरार हो जाने पर केन्द्र सरकार का पक्ष नहीं ले सकेगा, ना ही उस के हितों की रक्षा कर सकेगा। इस के उल्टा राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी या राज्यों ऊपर संघीय सरकारों का कंट्रोल ठीक तरह हो सकेगा।इस तरह राज्यपाल राज्य में संघी सरकार का प्रतिनिधित्व बन के रहेगा और उस की नीतियों उपर अमल करने में शहाई सिद्ध होगा।
- संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग में आने के समय में भारत की संघी सरकार का ढाचा इकात्मक रूप में बदल जाएगा तो उस हालत में संघी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल ही इस तरह ही इकातमक शासन के साथ मेल खा सकेगा और संघी सरकार की हदायतो की पालना करेगा। एक चुना हुआ राज्यपाल संघी सरकार का प्रतिनिधित्व बन के रहेगा यह संभव नहीं हो सकेगा।
ऊपर दिए गए सारी दलीलों के कारण ही यह उचित समझा गया कि राज्यपाल की नियुक्ति चुनाव द्वारा नहीं किया जाएगा और उस की नियुक्ति का प्रबंध राष्ट्रपति द्वारा किया जाए। बीते सालों के तज़ुर्बे से हमें सविंधान बनाने वाले की ऊंची सुझ बुझ का एहसास होता है।
राज्यपाल की नियुक्ती के संबंध में प्रथाएं(Convention regarding appointment of Governor)
राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में कुछ प्रथाएं कायम हो गया है, इस के बारे में नीचे लिखा गया है।
- पहली प्रथा तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को किसी भी राज्य में राज्यपाल नियुक्त किया जाता है जो उस राज्य का निवासी ना हो।यही नहीं उत्तरी राज्यों में दक्षिण राज्यों में और दक्षिण राज्यों में उत्तरी राज्यों के व्यक्तियों को राज्यपाल बनाया जाता है। इस प्रथा के होते हुए भी कई मौके पर राज्यपाल की नियुक्ति आपने राज्य में क्या गया है, जिस तरह की डा. आईच.सी मुखर्जी की बंगाल में और सरदार उजल सिंह की पंजाब में।
राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति करने से पहले संबंधित राज्य के मुख मंत्री से भी इस संबंध में सलाह करता है और उस की राय लेता है।इस से यह स्पष्ट है की राज्यपाल की नियुक्ति के समय में केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकार की भी सलाह ली जाती है।
1967 में चौथी आम चुनाव से पहले इस रस्म के संबंध में कोई बाद – विवाद नहीं था,क्यों की राज्य में केंद्र में कांग्रेस पार्टी ही ताकत में थी, पर चौथी आम चुनाव से पीछे कई राज्य में गैर – कांग्रेसी सरकार की स्थापना होने के उपरान्त इस प्रथा की उल्लंघन किये जाने का विरोध किया गया।
सब से पहले 1967 में हरियाणा के मुख मंत्री राऊ बीरेंद्र सिंह ने केंद्र से अपील की वह राज्यपाल के पद के लिए एक ही व्यक्ति का नाम नामजद नाम करे,और तीन चार व्यक्तियों के नामो का ‘ पैनल ‘ बनाए। केन्द्र ने राऊ बीरेंद्र सिंह की इस अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया।
बिहार के मुख मंत्री महामाया प्रसाद सिह्ना ने श्री नितियानांद् कानुंग्रो की नियुक्ति कर दिया। मुख मंत्री विरोध प्रगट करते हुए राज्यपाल का स्वागत करने के लिए हवाई अड्डे पर भी नहीं आए थे। फ़रवरी 1988 में जब हरियाणा में ख़ुफ़िया विभाग के मुखी को राज्यपाल नियुक्त किया गया तब मुख मंत्री देवी लाल से सलाह नहीं लिया था।
23 मई,1993 में राजस्थान के राज्यपाल चैना रैडी को तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त करते समय,तमिलनाडु के मुख मंत्री जयललिता के साथ विचार नहीं किया गया था। असल में केंद्र में ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त नहीं करना चाहिए जिस को मुख मंत्री पसंद ना करता हो।
तमिलनाडु केंद्र राज्य सबंधो में कमेटी के प्रधान पी. टी राजमट्रार ने सुझाव दिया की राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में राज्य सरकार की सलाह लेने की प्रथा को जारी रखना चाहिए और संविधान में ऐसा प्रबन्ध किया जाए तो राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति प्रसिद्ध कानून – गियाता और वकीलों की कमेटी की सलाह से कर सकते है। प्रशासनिक सुझाव आयोग ने सुझाव दिया की राज्यपाल की नियुक्ति राज्य सरकार की सलाह से ही की जानी चाहिए। समाज सेवकों कों राज्यपाल बनाना चाहिए ताकी वह निडर और निर्पक्छ रह के काम कर सके, पर आयोग का यह सुझाव उचित प्रतीत नहीं होता।
योगताए ( Qualifications)
धारा 157 के तहत राज्यपाल के पद के लिए नीचे लिखी गई योग्यता निश्चित किया गया है।
- वह भारत का नागरिक हो।
- उस की उम्र 35 साल से कम ना हो।
- वह किसी भी राज्य में विधान मंडल या सांसद का मैंबर ना हो। अगर हो तो राज्यपाल के पद ग्रहण करने से पहले उस को मेंबरी से इस्तीफ़ा देना होगा।
- वह सरकार के अधीन कोई लाभकारी ओहदे पर ना हो।
- वह किसी भी अदालत में दिवालिया करार ना किया गया हो।
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राज्यपाल की तनख़ा, भत्ते और अनेक सहुलात ( Salary and allowances)-
निश्चित करने का अधिकार सांसद को दिया गया है,पर राज्यपाल की नियुक्ति के पीछे उस की तनख़ा और सहुलात में उसके कार्यकाल दौरान कोई ऐसी तब्दीली नहीं की जा सकती, जिस से उस को नुक्सान हो। आजकल राज्यपाल को तीन लाख पचास हज़ार रुपए महीने तनख़ा मिलती है।
राज्यपाल के कार्यकाल
साधारण रूप से राज्यपाल को पांच सालों के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद ऊपर तब तक रह सकता है जब तक राष्ट्रपति चाहे। राष्ट्रपति पांच साल की मियाद पूरी होने तक पहले भी राज्यपाल को हटा सकता है,पर राज्यपाल को महादोष के द्वारा नहीं हटाया जा सकता।
27 अक्टूबर, 1980 में राष्ट्रपति ने तमिलनाडु के राज्यपाल प्रभूदास पटवारी को बर्खास्त कर दिया। जनवरी,1990 में राष्ट्रपति बैकट्टरमन के द्वारा राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के सलाह पर सारे राज्यपालों को इस्तीफ़ा देने के लिए बोला जाता है। ज्यादातर राज्यपालों ने तुरंत आपने इस्तीफ़ा भेज देते है। राज्यपाल चाहे तो खुद भी 5 साल से पहले इस्तीफ़ा दे सकता है।
29 जून, 1984 को पंजाब में राज्यपाल भार्गब दत्त पाण्डे ने इस्तीफ़ा दे दिया और 7 मार्च, 1986 को हिमाचल प्रदेश में राज्यपाल होकीसे सेना ने इस्तीफ़ा दिया। 23 जून, 1991 में पंजाब के राज्यपाल, जर्नल ओ. पी मल्होत्रा ने पंजाब विधान सभा की चुनाव स्थगित किए जाने के विरोध में इस्तीफ़ा दिया। मार्च 1998 में केंद्र में अटल बिहारी बाजपेई ने प्रधान मंत्री बनते ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रमेश भंडारी ने 16 मार्च, 1998 में इस्तीफ़ा दे दिया।
बचाव सहुलत
राज्यपाल को संबिधान द्वारा कुछ बचाव सहुलत भी मिलती है।
- उस को अपने ओहदे की शक्तियों का प्रयोग और कर्यव्य की पालना करने के लिए किसी भी अदालत के सामने जवाबदेह नहीं होना पड़ता।
- उस के कार्यकाल में उसके विरूद्ध में फाउज्दारी मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
- उस के कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत को राज्यपाल को नजरबन्द करने का हुक्म जारी करने का अधिकार नहीं है।
अगर किसी ने राज्यपाल के विरोध मुक़दमा करना हो तो दो महीने पहले नोटिस देना लाज़मी है।
राज्यपाल का तबादला (Transfer of Governor)-
राष्ट्रपति जब चाहे किसी राज्य के राज्यपाल को दूसरे राज्य में बदलाव कर सकता है। उदाहरण के रूप से 13 सितंबर,1977 में हरियाणा के राज्यपाल जय सुख लाल हाथी ने पंजाब के राज्यपाल नियुक्त किया गया और उड़ीसा के राज्यपाल हरचरण सिंह बराड़ ने हरियाणा के राज्यपाल नियुक्त किया गया।
1980 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल जी. डी. तपासे ने हरियाणा के और हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल अमिमुदिन अहमद खा ने पंजाब के राज्यपाल नियुक्त किया गया। 23 मई, 1993 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी.सतिया नारायणन रेड्डी ने उधर से हटा कर उड़ीसा के राज्यपाल बनाया गया और राजस्थान के राज्यपाल चैना रेड्डी ने उधर से हटा कर तमिलनाडु में राज्यपाल नियुक्त किया गया।
हिमाचल प्रदेश में राज्यपाल श्रीमती शीला देवी के पास इस्तीफ़ा देने के बाद हरियाणा के राज्यपाल महावीर प्रसाद ने हरियाणा में साथ – साथ हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल की जिम्मेदारियां भी, वहाँ पर नहीं नियुक्ति होने तक सौंपी गई। 16 जनवरी, 2010 में हिमाचल प्रदेश में राज्यपाल श्रीमती प्रभा राऊ ने राजस्थान के राज्यपाल के कारण तब्दीली किया।
राज्यपाल की शक्तियां और कार्य(Powers of function of Governor)
राज्यपाल में राज्य की लगभग वहीं शक्तिया और कार्य हासिल है, जो कि राष्ट्रपति ने केंद्र में हासिल किया है। राज्यपाल की शक्तियां और कार्य नीचे में लिखा हुआ है।
कार्यपालिका शक्ति(Executive power)-
सबिधान की धारा 154 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल के पास है, जिनका प्रयोग वह या तो खुद प्रत्यक्ष रूप से करते है या अपने अधीन कार्यपालिका नहीं करता है। राज्यपाल और कार्यपालिका शक्तियां वह अपने सारे विषय ऊपर लागू होता है, जिसके ऊपर राज्य विधान मंडल के पास कानून बनाने का अधिकार है। राज्यपाल के पास आगे लिखा हुआ कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त है।
- राज्य का पूरा शासन , गवर्नर के नाम पर चलाया जाता है। वह उन सारे विषय पर शासन चलाते है, जिस के सम्बन्ध से राज्य को विधान मंडल को कानून बनाने का अधिकार है।
- राज्यपाल ही मुख्य मंत्री को नियुक्ति करता है और उस की सलाह से मुख्य मंत्री दूसरे मंत्रियों को नियुक्ति करता है।
- मंत्री अपने ओहदे पर राज्यपाल की क्रिपा से रहते है। राज्यपाल किसी भी मंत्री को मुख्य मंत्री की सलाह से हटा सकता है। उदाहरण के लिए 14 जून, 1974 में हरियाणा राज्य के राज्यपाल श्री बी. आइएंन चक्रवर्ती ने मुख्यमंत्री की सलाह के ऊपर माल मंत्री श्रीमती चन्द्रवती को मंत्री मंडल से बर्खास्त कर दिया था। जुलाई, 1984 में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने डॉ: फारूख अब्दुल्ला ने मंत्री मंडल ने इस लिए बर्खास्त कर दिया था, क्यो की दल – बदलने के कारण डॉ: फारूख अब्दुल्ला को विधान सभा में बहुमत नहीं था।
- वह सदन के कार्य को सुबिधापूर्बक चलाने के लिए और उस कार्य को मंत्रियों को बांटने के लिए नियम बनाया जाता है।
- वह राज्य के एडवोकेट जरनल और लोक सेवा आयोग के चेयरमैन और दूसरे मैंबर की नियुक्ति करते है। राज्य के उच्च अधिकारी की नियुक्ति राज्यपाल के द्वारा ही की जाती है।
- राष्ट्रपति उच्च – अदालत के जजों की नियुक्ति के समय राज्यपाल की सलाह लेता है।
- राज्यपाल, मंत्री के किसी भी निर्णय को मंत्री परिषद के पास विचार करने के बाद वापिस भेज सकता है।
- वह प्रशासन के संबंध में मुख्य मंत्री से कोई भी जानकारी हासिल कर सकता है। राज्य के शासन और कानून बनाने संबंध में मंत्री मंडल से हरेक निर्णय की सूचना राज्यपाल को देनी मुख मंत्री का सबिधानिक फ़र्ज़ है। राज्यपाल उस विषय ऊपर सारे मंत्री मंडल को विचार करने के लिए बोल सकता है, जिस ऊपर एक मंत्री का निर्णय लिया जाता है।
- असम के राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया है की वह अनुसूचित जातियों के हितों का ध्यान रखे।
- बिहार, मध्यप्रदेश और ओड़िशा के राज्यपाल की एक विशेष ज़िम्मेदारी है की सभी राज्य में अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गो की भलाई के लिए अनेक मंत्री नियुक्त किया जाता है।
- 36 बी शोध के द्वारा सिक्किम में राज्यपाल की कुछ विशेष शक्तियाँ दी गयी होती है। इस शोध के अनुसार सिक्कीम के लोगो के अलग – अलग वर्ग होता है जैसे की सामाजिक और आर्थिक विकास का एक रूप में करने के लिए और उचित प्रबंध करे और अमन की स्थापना करने के लिए राज्यपाल की विशेष ज़िम्मेदारी है। अपनी इन विशेष जिमेदारियो को पूरा करने के लिए सिकीम के राज्यपाल अपनी इच्छा अनुसार कार्य करेगा, पर राष्ट्रपति के द्वारा दिए गए हिदायत की उसे पालन करना पड़ेगा।
- धारा 356 के अनुसार अगर राज्यपाल यह महसूस करे की राज्य में ऐसी हालत पैदा हो गयी है की राज्य का प्रशासन लोकतांत्री परंपरा के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो वह राष्ट्रपति को इस सबंध मे रिपोर्ट भेज सकता है और राष्ट्रपति द्वारा संबैधानिक संकट का ऐलान कर सकता है और वह राष्ट्रपति के हुक्म अनुसार राज्य का शासन चलता है। 17 मार्च, 1987 में केरल में राज्यपाल की सिफारिश ऊपर ही राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। अगस्त, 1987 में पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ संकट राय की सिफारिश ऊपर ही पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया।
- अन्नुछेद 55 बी द्वारा अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल को राज्य में शांति और कानून बनाए रखने के लिए विशेष अधिकार दिया गया है।
राज्यपाल की वैधानिक शक्तियाँ –
राज्यपाल विधान मंडल का मैम्बर नहीं है। फिर भी कानून – निर्माण में उसका महत्वपूर्ण हाथ होता है और इस लिए उस को विधान मंडल का एक अंग माना जाता है। वैधानिक शक्तियों के बारे में नीचे लिखा गया है।
- राज्यपाल विधान मंडल का समागम खुला सकता है। स्थगित कर सकता है, और इस की मियाद बड़ा सकता है, पर एक महीने के अंदर – अंदर उस को अपना समागम जरूर बुलाना पड़ता है।
- वह विधान – मंडल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है और उनको सन्देश भेज सकता है।
- वह विधान मंडल के निचले सदन सभा को जब चाहे भंग कर सकता है। अपने इस अधिकार का प्रयोग वह साधारण तौर पर मुख्यमंत्री की सलाह अनुसार ही करता है। मार्च, 1977 में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री शेख अब्दुला की सलाह अनुसार विधान सभा को भंग किया था।
- हरेक साल विधान मंडल का समागम राज्यपाल की सलाह अनुसार शुरू करना पड़ता है, जिस में राज्य की नीतियों का वर्णण किया जाता है।
- अगर राज्य विधान मंडल में अग्लो इंडियन भाईचारे को उचित नुमायदगी ना मिले तो राज्यपाल उस फिरके के एक मैम्बर को विधान सभा में नामजद कर सकता है।
- राज्य विधान मंडल द्वारा पास किया हुआ बिल उतने देर तक कानून नहीं बना सकता जब तक राज्यपाल अपनी मंजूरी ना दे। इन बिलो को राज्यपाल मंजूरी देने से ना नहीं कर सकता, पर साधारण बिलो को पूर्ण विचार करने के लिए वापिस भेज सकता है, अगर विधान मंडल साधारण बिल को दोबारा पास कर दे तो राज्यपाल को अपनी मंजूरी देनी पड़ती है।
- राज्यपाल राज्य विधान मंडल के उपर के सदन के मैम्बरो को नामजद करता है। राज्यपाल ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त करता है। जिन्होंने विज्ञान, कला, साहित्य, समाज सेवा आदि के छेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त की हो।
- राज्यपाल को आर्डिनेंश जारी करने का अधिकार हासिल है। जब विधान मंडल का समागम ना हो रहा हो और कोई असाधारण हालत पैदा हो गई हो, जिस को पूरा करने के लिए कोई कानून ना हो तो राज्यपाल आर्डिनेंश जारी कर सकता है। आर्डिनेश ने उसी तरह लागू किया जाता है , जैसे विधान मंडल के बनाये हुए कानून को,पर यह आर्डिनेंश विधान मंडल की बैठक शुरू होने से 6 हफ्तों के बाद लागू नहीं रह सकता। अगर विधान – मंडल इस समय से पहले ही इस को ख़तम कर के मता पास कर दिया, तब ऐसा आर्डिनेंश तुरंत खत्म हो जाता है। राज्यपाल खुद भी आर्डिनेंश वापस ले सकता है। राज्यपाल उस विषय सबंध में आर्डिनेंश जारी नहीं कर सकता, जिस विषय ऊपर कोई बिल पेश करने से पहले राष्ट्रपति की पूरब – मंजूरी की जरुरत हो तो जिस बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजना जरुरी है।
- राज्य सरकार के कार्य को सफलता पूर्वक चलाने के लिए उस कार्य को मंत्री में बांटने के लिए राज्यपाल नियम बना सकता है। 42 बी शोध द्वारा कोई अदालत उन नियम को अपने सामने पेश करने की मांग नहीं कर सकता है।
- राज्यपाल विधान परिषद के चेयरमैन और उप – चेयरमैन के पद खाली होने पर किसी भी मैम्बर को विधान परिषद की परवानगी करने के लिए बोल सकता है।
- राज्यपाल राज्य लोक सेवा अयोग्य और एडिटर जनरल की सालाना रिपोर्ट के विचार के लिए विधान मंडल के सामने पेश करता है।
राज्यपाल की वित्तीय शक्तियां –
राज्यपाल के नीचे लिखी हुई शक्तियां हासिल है। राज्यपाल की सिफारिश के बिना धन – बिल विधान सभा में पेश नहीं नहीं कर सकता, विधान सभा से धन की मांग राज्यपाल की सिफारिश पर ही की जा सकती है। सलाना बजट राज्यपाल ही वित्त मंत्री द्वारा विधान सभा में पेश करते है।
कोई भी ग्रांट की मांग बजट में बिना राज्यपाल की आज्ञा से पेश नहीं हो सकती है। राज्य के आकसिम्क्ता पर राज्यपाल का ही कंट्रोल है। अगर संकट के समय में जरुरत पड़े तो राज्यपाल इस में जरुरत अनुसार खर्च कर सकता है और इस के बाद राज्य विधान मंडल से उस खर्च की मंजूरी ले लेता है।
राज्यपाल की अदालती शक्तियां –
राज्यपाल को नीचे लिखी हुई अदालती शक्तियाँ हासिल है।
- उच्च अदालत के मुख्य जज को नियुक्त करते समय राष्ट्रपति राज्यपाल की सलाह लेते है।
- जिला जज की नियुक्ति और तरक्की राज्यपाल ही करता है।
- राज्यपाल उस अपराधी की सज़ा को माफ कर सकता है। घटा सकता है और कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है। जिसे राज्य के कानून के विरुद्ध अपराध करने पर सज़ा मिली हो। वह इस अधिकार का प्रयोग उन विषय पर नहीं कर सकता है। जो संघी सरकार की कार्यपालिका के अधीन हो। राज्यपाल अपनी इस शक्ति का प्रयोग मुकदमे की सुनवाई के शुरू होने से पहले उस के दौरान या उस के बाद कर सकता है। सितम्बर, 1983 में हरियाणा के राज्यपाल तपासे ने पुलिस उप- निरीक्षण परमानंद की सज़ा को माफ कर दिया।
- राज्यपाल यह देखता है की किसी भी अदालत के पास ज्यादा काम तो नहीं है अगर है तो वह जरुरत अनुसार बहुत सारे जज को नियुक्त करता है।
राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार –
राज्यपाल को कुछ विवेकाधीन अधिकार भी प्राप्त है। विवेकाधीन अधिकार का प्रयोग राज्यपाल अपनी इच्छा से करता है ना की मंत्री मंडल की सलाह से। राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों के बारे में निचे लिखा गया है।
- आसाम में आदम जातियों और प्रशासन के सबंध में – आसाम राज्य के राज्यपाल को आदम जातियों के प्रशासन के सबंध में स्वय – विवेक से काम करने का अधिकार है। आसाम के राज्यपाल को अपने राज्य की अनुसूचित छेत्रो के सबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेज सकता है।
- सिकिम के राज्यपाल की विशेष ज़िम्मेदारी- सिकिम राज्य में शांति बनायें रखने के लिए, सिकिम की आबादी के सभी वर्ग के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सिकिम के राज्यपाल को विशेष ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है।
- राज्य में संबैधानिक संकट होने पर – हरेक राज्यपाल अपने राज्य में संबैधानिक मशीनरी फेल हो जाने की रिपोर्ट राष्ट्रपति के प्रतिनिध के रूप में काम करता है।
- केन्द्र शासित प्रदेश और परससक के रूप में – अगर राष्ट्रपति ने राज्यपाल को राज्य के नज़दीक केन्द्र शासित प्रदेश का प्रशंसक भी नियुक्त कर दिया है। जो वह प्रदेश का प्रशासन स्वय – विवेक से चलाता है।
- राज्यपाल अपने राज्य में विश्व विद्यालय का कुल पति होता है।
राज्यपाल की भूमिका क्या है?
राज्यपाल एक संबैधानिक मुखी के रूप में – राज्य में राज्यपाल की स्थिति लगभग वही है। जो संघी सरकार में राज्यपाल की है। सबिधान के नज़रिए से सरकार की सारी शक्तियाँ राज्यपाल के पास है और मंत्री परिषद का काम उस को शासन में मदत और सलाह देनी है। वह एक सांविधानिक शासक है और राज्य का सारा काम उस के नाम पर चलाया जाता है।
राज्यपाल को जो भी शक्तिया प्राप्त है, उन का प्रयोग वह राज्य की मंत्री परिषद द्वारा करता है। हमारे संबिधान में यह स्पष्ट नहीं किया गया की राज्यपाल के लिए मंत्री परिषद की सलाह को मंजूर करना जरूरी है या नहीं, पर राज्यों में सांसदी शासन प्रणाली होने से राज्यपाल को मंत्री परिषद की सहमति से राज्य का प्रबंध चलाना पड़ता है।
श्री.आएम.बी.पाइली के शब्दों में, जब तक राज्यपाल मंत्री परिषद की सहमति से काम करता है और विधान मंडल प्रति पूरी तरह जवाबदेह मंत्री मंडल, राज्यपाल को उस के काम -काज में सलाह और संहिता करता है। तब तक राज्यपाल के लिए उस की सलाह को नामंजूर करने की कम सभावना है। असल में राज्यपाल की स्थिति एक संविधानिक या ना – मात्र के प्रशासक की तरह है और राज्य का असली शक्ति मंत्री परिषद के पास है।
1947 से पहले ब्रिटिश शासन काल में राज्यपाल की स्थिति एक शक्तिशाली प्रशासक की थी। 1935 के एक्ट के तहत उस को कई किस्म के विवेकशील और स्वय – निर्णय लेने का अधिकार था। राज्यपाल मंत्रियों की सलाह मानने के लिए हरेक मौके पर पाबंद नहीं था।
1935 एक्ट के अधीन राज्यपाल के विवेक सबंधी छेत्रो का स्पष्ट रुप में वर्णण किया गया है, पर भारत का नया संविधान, राज्यपाल की ऐसी शक्तियो को स्पष्ट या प्रवाहित नहीं करता। ऐसा लगता है वर्तमान संविधान के तहत राज्यपाल अपने विवेकी अधिकार खो बैठा है और उसको अपने मंत्रियों की सलाह ऊपर ही चलना पड़ता है। यह उस समय तक ही है जब तक मंत्री मंडल में बहुमत हासिल हासिल है।
डॉ: अम्बेदकर ने राज्यपाल की स्थिति का वर्णण करते हुए संविधान सभा में कहा था की , राज्यपाल की शक्तियाँ बहुत सिमित दिखाने वाली होगी। वह कोई भी काम अपनी मर्जी या निजी निर्णय के अनुसार नहीं कर सकेगा। इस बात का समर्थन कोलकाता हाई कोर्ट ने सुनील कुमार बोष आदि बनाम मुख्य सरकार पश्चिमी बंगाल के मुक़दमे का फैसला देते हुए इस तरह किया , राज्यपाल वर्तमान संविधान के तहित अपने मंत्रियों की सलाह के बिना कोई भी काम नहीं कर सकता है। राज्यपाल सिर्फ एक संविधान मुखी ही नहीं , वह प्रवावसाली पद भी है।
- राष्ट्रीय संकट का ऐलान – जब राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट का ऐलान करता है तब राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि बन जाता है। और उस को राष्ट्रपति के हिदायतों का पालन करना पड़ता है।
- राज्य में संबैधानिक संकट का ऐलान – जब राज्यपाल राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट भेजता है तो राज्य का काम संविधान की धारा के अनुसार नहीं चलाया जा रहा तो राज्य में संबैधानिक मशीनरी के फेल जाने के कारण राज्यपाल केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्य सरकार के असल शासक के तोड़ पर काम करता है।
यहाँ पर यह बात याद रखने वाली है की कोई भी मुख मंत्री अपने मंत्री मंडल को भंग करने के लिए राज्यपाल को सुझाव नहीं देगा और इस लिए राज्यपाल को यह अपने आप ही निर्णय करना पड़ेगा की मंत्री मंडल को बहु – गिनती दल का समर्थन हासिल है या नहीं। जब राज्यपाल राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भेजता है तो वह किसी दल का पक्ष भी ले सकता है। उदाहरण के रूप में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, श्री गोपाल रेड्डी ने संबैधानिक मशीनरी की सफलता की सिफारिश उस समय किया था। जब सयुक्त विधायक दल सरकार चला सकता है। 1965 में केरल में मध्यकाल चुनाव के बाद राज्यपाल ने यह जानते हुए भी की वर्तमान राजनीति स्थिति में कोई भी राजनीति दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। - मुख्य मंत्री की नियुक्ति – जब विधान सभा की चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं है तो राज्यपाल अपनी मर्ज़ी से मुख्य मंत्री नियुक्त करता है। 1952 में मद्रास के राज्यपाल श्री प्रकाश ने श्री गोपालचारी ने मद्रास के मुख्य मंत्री इस लिए नियुक्त किया क्योकि वह ऐसे दल के नेता थे, जिस से सब से ज्यादा वोट हासिल हुआ था ।
1967 में आम चुनाव के पीछे कई राज्य में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत ना मिलने के कारण राज्यपाल को अपने स्वय – विवेक से मुख्य मंत्री की नियुक्ति करने का मौका मिला, पर इन में राज्यपाल ने एक जैसी रणनीति नहीं अपनाई। कई राज्य में उस दल के आगू को मुख्य मंत्री बनाया गया जिस से सब से ज्यादा सीटें हासिल थी और कई राज्य में मिले जुले दल के नेता को सरकार बनाने के लिए न्योता दिया गया। 23 मई, 1982 में हरियाणा के राज्यपाल जी. डी. तपासे ने कांग्रेस ने आगू भजन लाल को मुख्य मंत्री नियुक्त किया जब की कांग्रेस को विधान सभा में स्पष्ट बहुमत नहीं था।
यह याद रखने योग्य है की मुख्य मंत्री की नियुक्ति बारे राज्यपाल की वीवेकीय शक्तियां असीमित नहीं है। सितंबर,2001 में उच्च अदालत ने अपने एक फ़ैसले पर स्पष्ट रूप से कहा की अगर राज्यपाल ऐसे व्यक्ति को मुख्य मंत्री नियुक्त करता है जो राज्य विधान सभा के मैंबर बनने के योग्य नहीं है तो संबिधान के अनुच्छेद 164 के तहत ऐसी नियुक्ति गैर संबैधानिक मानी जाएगी।
- मंत्री परिषद को भंग करना – मंत्री परिषद को भंग करते समय राज्यपाल अपनी मर्ज़ी कर सकता है। 1967 में चुनाव से पीछे बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी के मंत्री मंडल को भंग कर दिया और विधान सभा का समागम बुला कर यह देखा तक नहीं की उन के विधान सभा में बहुमत हासिल है कि नहीं।
1967 में हरियाणा के राज्यपाल ने राऊ वीरेंद्र सिंह ने मंत्री मंडल को इस लिए बर्खास्त कर दिया था, क्योंकि दल – बदल के कारण उन के समर्थकों और विरोधियों का स्पष्ट पता नहीं लग रहा था । जुलाई, 1984 में जम्मू – कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने डॉ : फारूख अब्दुल्ला के मंत्री मंडल को इस लिए भंग कर दिया था कियोकि दल – बदल के कारण डॉ : फारूख अब्दुल्ला का विधान सभा में बहुमत नहीं था । - विधान सभा को भंग करना – विधान सभा को बर्खास्त करते समय बहुमत दल के नेता विधान सभा को भंग करने की सलाह राज्यपाल को देता है, तो राज्यपाल को वह सलाह माननी पड़ती है पर इस संबंध में राज्यपाल को स्वय – विवेक का प्रयोग करने का मौका हासिल है, जब की दल – बदल के कारण या किसी दूसरे कारण सरकार कम – गिनती में रह गई हो। इस संबंध में यह सवाल पैदा होता है की बाहर वाले मुख्य मंत्री की विधान सभा को भंग करने की सलाह नहीं मानी थी। मई,1994 में सिक्किम के राज्यपाल आर. आयच. तहलियानी ने मुख्य मंत्री नर बहादुर भंडारी को विधान सभा को भंग करने की मांग को अप्रवान कर दिया।
- सूचना प्राप्त करना – राज्यपाल मुख्य मंत्री से प्रशासन और विधानिक स्थिति संबंध सूचना हासिल कर सकता है।
- बिल की मंज़ूरी समय – विधान मंडल द्वारा पास किए गए बिल को ना – मंज़ूर करते समय या उस को विधान मंडल के पुनर्विचार के लिए भेजने समय राज्यपाल अपनी मर्ज़ी अनुसार निर्णय लेता है ।
- आसाम के राज्यपाल के कुछ अलग स्वेे – इच्छुक अधिकार हासिल है। इस को कुछ विशेष कबीले और छेत्र के राज्य प्रबंध के लिए अपनी मर्ज़ी के अनुसार काम करने की आज़ादी है ।
उपर वर्णण किए गए विचारों से अनुमान लगाया जा सकता है की हमारे सविंधान के निर्मानर्ताओं का मुख्य मनोरथ राज्यपाल को एक ही संवैधानिक मुखिया ही बनाना था, जो की राज्यपाल को विशेष हालत में एक असल शासक के रूप में काम करना पड़ता है। इस के अलावा राज्यपाल की स्थिति के ऊपर इस ओहदे पर नियुक्त किए गए व्यक्ति का विशेष प्रवाभ पड़ता है जैसे कि कुछ राज्यपाल सिर्फ संविधानिक स्थिति से ही संतुष्ट होते है। पर कुछ ऐसे राज्यपाल भी है जो राज्यपाल के अधिकार को बढ़ा के विस्तृत रूप दे कर प्रयोग में लाना चाहते है। उदाहरण के रूप से श्री आएन.बी गाडगिल जो पंजाब के राज्यपाल थे, श्री धर्मवीर और इन से पहले श्री चंदू लाल त्रिवेदी।
1967 में आम चुनाव के पीछे राज्यपाल की भूमिका
1967 की चौथी आम चुनाव के बाद भारत के कई राज्य में गैर – कांग्रेसी मंत्री – मंडल कायम हो गए थे,जब की केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार स्थापित थी। ऐसी हालत में राज्यपाल का महत्व बढ़ जाना स्वभाविक ही था।
दूसरा, इस चुनाव के पीछे दल – बदली की बीमारी इतनी फैल गई की सरकार बनने और गिरने लगी,जिस के फलस्वरूप राज्यपाल को एक नई स्थिति का सामना करना पड़ा। तीसरा, कई राज्यों में संयुक्त सरकार कायम की गई है, जिस के कारण वह राज्य में मुख्य मंत्री की स्थिति इतनी मजबूत नहीं थी, जितनी की 1967 से पहले कांग्रेसी मुख्य मंत्रीओ की थी। चौथा, 1967 में कांग्रेस दल का बटवारा होने की वजह से राज्यपाल सरगरम शासन अधिकारी बन गए। जल्दी ही राज्यपाल की सरगर्मियां आलोचना और बाद – विवाद का कारण बन गया।
1968 में विशेष करके राज्यपाल की शक्तियां राजनीतिक बाद – विवाद मुख्य विषय है। कुछ राज्यपाल ऊपर पक्षपात करने का दोष लगाया गया और कुछ के ऊपर केन्द्र सरकार के दबाव में आ कर मंत्री मंडल को तोड़ने का दोष लगाया गया।
राज्यपाल की सरगर्मियों की आलोचना का एक मुख्य कारण यह था की राज्यपाल के समान्य हालत की समान्य नीति को नहीं अपनाया था,पर हरेक राजनीति दल के राज्यपाल को यह उम्मीद करनी की वह उस दल की इच्छा अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करेगा, वह गलत धारणा है।
बंगाल के भूतपूर्व राज्यपाल श्री धर्मवीर ने इस विषय उपर अपने विचार प्रगट करते हुए कहा था कि,मेरे विचार अनुसार राज्यपाल की भूमिका संबंधी बाद – विवाद का उचित हल यह है की उनके लिए मार्ग – दर्शन बना दिए जाए, जीन को सामने रखते हुए वह शासन का काम चलाए।
पर गाइडलाइन्स को तैयार करना आसान काम नहीं है। देश के राजनीतिक माहौल को देखते हुए राष्ट्रपति बी.बी.गिरी ने पांच राज्यपाल की एक कमेटी नियुक्त किया था, जिसका काम यह था की वह यह बताएं की संविधान में राज्यपाल की क्या स्थिति है।
इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 26 नवम्बर , 1971 में राष्ट्रपति की दी थी। कई और बातों के अलावा इस कमेटी की वह रिपोर्ट थी की, मंत्री मंडल में विधान सभा का विश्वास है की नहीं वह अधिकार विधान सभा को ही है। अगर शक हो जाए तो राज्यपाल मुख्य मंत्री को विधान सभा की बैठक बुलाने के लिए बोल सकता है।
अगर मुख्य मंत्री टाल – मटोल करता है तो फिर राज्यपाल को मुख्य मंत्री को हटाने का अधिकार है।इस तरह इस कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति का एजेंट नहीं है। 1976 के राज्यपाल के सालाना सम्मेलन में उस समय के राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने कहा था की, अगर किसी राज्य में भ्रष्टाचार और घटिया प्रशासन है और ऐसा लगता है की राज्य सरकार उस को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उत्साह दे रही है तो ऐसी हालत में राज्यपाल को आँख बंद करके बैठे रहना ठीक नहीं है।अगर कोई राज्यपाल ऐसा करता है तो वह जनता और संविधान दोनों प्रती ज़िम्मेदारी से मुकरता है।
के. ऐस. मुंशी ने ठीक ही कहा है कि, राज्यपाल को सरगरम राजनीति में हिसा लेने की छूट नहीं है।राजस्थान विधान सभा में विरोधी दल ने वहा के राज्यपाल बसंत दादा पाटिल ने महाराष्ट्र की सरगरम राजनीति में दिलचस्पी लेने ऊपर जो इंतजार किया था वह असल में गंभीर मामला था। यह चिंता का विषय है की कुछ राज्यपाल ने अपने गलत कामों से राज्यपाल जैसे ओहदे को नज़रों से गिरा दिया है।
राज्यपाल क्या होता है? राज्यपाल की भूमिका क्या है? का निष्कर्ष ( Conclusion of What is a governor? What is the role of the governor?)-
वर्तमान समय में राज्यपाल की जिमेदरी पहले से ज्यादा बढ़ गया है। उस को अपने स्वतंत्र अनुभव और विवेक से काम लेते हुए केंद्र पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं होना चाहिए। राज्यपाल पूर्ण दल – हीन व्यक्ति होना चाहिए है। उस का नज़रिया एक निर्पक्ष सलाहकार और एक सूलझे हुए तजुर्बेदार सियासतदान के रूप में मंत्री परिषद का मार्ग – दर्शन करने वाला है। अगर वह स्वतंत्र रूप से अपने तजुर्बे द्वारा मंत्री मंडल को ठीक सलाह दे सकेगा तो ही उसके ओहदे का सत्कार बढ़ेगा। राज्यपाल का काम मैंबर को उत्साह देने की चेतावनी देना है।
मार्च, 1979 में दिल्ली राज्यपाल के दो दिनों के सालाना समागम का उदघाटन करते हुए राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी ने राज्यपाल को जिन फ़र्ज़ पर ध्यान दिलाया जाता है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने राज्यपाल को कहा की वह संविधान और कानून की रक्षा के लिए सपथ लेते है।
इस लिए उन को खुद संविधान और कानून की रक्षा की सपथ का वर्णण किया की अपने फर्ज का पालन करना चाहिए । उन्होंने ने यह भी कहा की,जनता के मन में यह विश्वास पैदा करना बहुत जरूरी है की राज्यपाल एक स्वतन्त्र और निरपक्ष अधिकारी है।
राज्यपाल को ना सिर्फ मंत्री मंडल का और विरोधी दल का भी विश्वास प्राप्त होना चाहिए। एक नाज़ुक और मुश्किल जिम्मेदारी की पालन तभी हो सकती है और वह संविधान के उद्देश्य की ठीक तरीके से पूरी पालन करते हुए अंतर – विरोधी हितों के आपस में सन्तुलन बनाए रखना। राज्य और केंद्र या अलग – अलग राज्य सरकार पैदा होने वाले विवाद में राज्यपाल अपनी भूमिका द्वारा एक मर्यादा पूर्ण प्रभाव पैदा कर सकते है।
आख़िर में कहा जा सकता है की राज्यपाल की स्थिति संबैधानिक मुखिया और असली शासक दोनों को ही है।राज्यपाल एक ही समय में राज्य के मुख्य कार्यपालिका और संघी सरकार का प्रतिनिधित्व है। अमन – शांति की हालत में राज्यपाल को मंत्री मंडल की सहमति से चलना पड़ता है क्योंकी राज्य में जवाबदेह सरकार कायम की गई है।संकटकालीन हालत में राज्यपाल को राष्ट्रपति के हुक्म के अधीन कारवाई करता है और मंत्री परिषद इन सब कारवाई के लिए शासद के प्रति जवाबदेह होती है।
भारत के संविधान में ऐसा को बन्धन नहीं है। जो राज्यपाल को अपने पद से गौरव के अनुरूप योगरूप और रचनात्मक भूमिका अदा करने से रोकती है।संछेप में राज्यपाल का ओहदे राजकीय शोभा नहीं है। वह प्रशासन का महत्वपूर्ण अंग है।
उम्मीद करता हूँ की हमारे इस राज्यपाल क्या होता है? राज्यपाल की भूमिका क्या है? आर्टिकल के द्वारा आपके सभी सवालो का जवाब मिल गया होगा। लेकिन अगर आपके मन में कोई सवाल या सुझाव है तो आप हमे निःसंदेह कमेंट्स के जरिए बता सकते है। हम आपकी पूरी सहायता करने का प्रयत्न करेंगे।
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